| دون إزميل |
| كسَرَتْ أطواق الياسمين سجني |
| عبثا أحاول مسك ذيول الحرية |
| عبثا أحاول الصراخ في الصمت |
| عيوني تلك الفنارات الدائبة |
| ترشد نوارس قلبي الصغير |
| إلى لازورد عيون أمي الدافئة |
| أتلهف اللقيا بمن غابوا من كوة سجني |
| بيني وبين أبي أرتجل الحديث داخلي |
| تحت الخيام هناك حيث تسكن روحي |
| حذائي من صقيع وعيوني جوعى |
| أرتشف الريح عطشا |
| ونافذتي من بقايا زجاج وخوذات دامية |
| أحلم بالعودة من نبوءات الغابرين |
| حيث نبتْتُ طوقا من ياسمين. |